नारायणी माता का प्रसिद्ध मंदिर अलवर जिले में सरिस्का क्षेत्र के किनारे स्थित पहाड़ो के बीच मे बसा हुआ है। यह अपने आप मे एक अद्भुत मंदिर है। यह मंदिर पहाड़ो के बीच मे उनकी तलहटी मे बसा हुआ है और इसके चारो तरफ जंगलनुमा क्षेत्र है।
इस मंदिर का निर्माण 11वी सदी मे प्रतिहार शैली मे हुआ था। उस समय वहा पर राजा दुलहरायजी का शासन था और नांगल पावटा के जगीरदार ठाकुर बुधसिंह ने नारायणी माता के मंदिर की स्थापना कारवाई थी। उन्होने पानी के कुंडो की स्थापना भी करवाई थी। बाद मे अलवर नरेश जयसिंह ने पानी के कुंडो को बडे आकार मे परिवर्तित कर दिया और इसके बाद मे नाई समाज ने भी समय समय पर कई जीर्णोद्धार कार्य करवाए।
नारायणी माता कौन थी – Narayani Mata History In hindi – माता का मंदिर अलवर जिले से दौसा की तरफ विश्व प्रसिद्ध भानगढ़ किले से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, यह अलवर जिले से लगभग 80 किलोमीटर की दूर स्थित है, जयपुर से यह मंदिर 90 किलोमीटर है और दौसा से 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
यह मंदिर भारत में सेन समाज से जुड़ा एकमात्र मंदिर है यह मंदिर सेन समाज की कुलदेवी के रूप में भी माना जाता है। नारायणी माता उत्तरी भारत में पहली एकमात्र सती है जो रानी सती माता से भी पहले की है।
नारायणी माता मंदिर के पानी के कुंड का चमत्कार
इस मंदिर की खास बात यह हे मंदिर के पास एक पानी का कुंड बना हुआ है उस कुंड मे कुछ सफ़ेद रंग के छोटे छोटे पत्थर पड़े हुए हे। जब पानी के अंदर उन छोटे छोटे पत्थर को देखा जाता हे तो आभास होता हे जेसे कोई सिक्के पड़े हुये हो। लेकिन जेसे ही उन पत्थरो को हाथ मे उठाकर पानी से बाहर देखते हे तो वो सिर्फ पत्थर ही दिखाई पड़ते हे। कई लोग इस बात को चमत्कार भी मानते है।
मंदिर के कुंड के पानी को लोग गंगा की तरह पवित्र मानते हे। लोग इस पानी को बर्तन मे भर कर अपने घर भी ले जाते हे। वे पानी के कुंड मे स्नान भी करते हे, मान्यता हे की स्नान करने से कई प्रकार के रोगो से मुक्ति भी मिल जाती हे और पाप भी धुल जाते हे।
नारायणी माता का जन्म, कौन थी नारायणी माता
नारायणी माता का जन्म मोरागढ़ ग्राम में हुआ था, इनका जन्म सावंत 1001 विक्रमी में हुआ था। इनके पिता का नाम विजयराज था तथा माता का नाम रामहेती था। इनके बाल्यावस्था का नाम कर्मा था इनकी बचपन से ही कर्म धर्म की ओर विशेष रुचि थी। नारायणी माता का विवाह राजोरगढ़ निवासी गणेशजी के पुत्र करुणेशजी के साथ किया गया था। 2 साल बाद जब उनका गोना किया गया था तब वह अपने पति के साथ मोरागढ़ से राजोरगढ़ के लिए प्रस्थान किया। बीच रास्ते मे ही उनके पति की मृत्यु हो गई और ये अपने पति के साथ मे ही सती हो गयी थी। उन्ही की याद मे इस अद्भुत मंदिर का निर्माण किया गया था।
कथा के अनुसार
जब नारायणी माता और उनके पति मोरागढ़ से राजोरगढ़ के लिए प्रस्थान कर रहे थे, तो रास्ते में दोनों पति पत्नी विश्राम हेतु एक वृक्ष के नीचे बैठ गए थे। लंबी दूरी तय करने के कारण दोनों थके हुए थे अतः उनके पति को जल्दी ही नींद आ गई और वे उस वृक्ष के नीचे सो गए, उसी समय वहां पर एक काला सर्प आ गया और सोए हुए उनके पति को डस लिया।
डसने के बाद काला सर्प चला गया। जब श्याम हुई तब माता को आगे जाने की चिंता हुई और उन्होंने देखा कि उनके पति अभी भी सो रहे हैं, वह नींद से नहीं जागे। अतः वह अपने पति को जगाने लगी लेकिन वह नहीं जागे तो उनकी चिंता और बढ़ने लगी, इनको क्या हो गया है ये क्यों नहीं जग रहे हैं। उसी समय वहां पर कुछ ग्वाले गाय चरा रहे थे उन्हें देखकर माता ने उनको आवाज लगाई और पास बुलाया और कहा कि मेरे पति निंद्र अवस्था से नहीं उठ रहे हैं। अब मैं क्या करूं, अतः ग्वालो ने उनके पति को देखा और समझ में आया कि यह स्वर्ग सिधार चुके हैं। इसके बाद मे ग्वालो ने नारायणी माता को बताया की आपके पति मर चुके है।
माता ने ग्वालो से कहा कि अब मैं जी कर क्या करूंगी जब मेरे पति ही मुझे छोडकर चले गए है। मैं भी अपने पति की चिता के साथ मे सती हो जाऊँगी। आप सब लोग चिता के लिए लकड़ियों का इंतजाम कर दें। अतः ग्वालो ने जंगल से लकड़ियां इकट्ठी कर दी और चिता सजा दी। चिता पर माता सती अपने पति को अपनी गोद में लेकर बैठ गई उसी समय चिता मे अपने आप ही आग जलने लगी। जलती चिता को देखकर ग्वालो ने इसे चमत्कार मान लिया और माता से कहा कि आप हमें एक वरदान दो जिससे इस क्षेत्र में पानी की कमी दूर हो सके। इस क्षेत्र में पानी की बहुत कमी है, यहां के मनुष्य और यहां के जानवरों के लिए पीने के पानी की बहुत बड़ी समस्या है।
अतः आप सती हो रही है तो आप हमें एक वरदान दे दीजिए। नारायणी माता ने उन ग्वालो को वरदान दिया और कहा कि तुम इस जलती हुई चिता से एक लकड़ी उठाकर भागते रहना जब तक तुम भागते रहोगे तब तक पानी की धारा तुम्हारे पीछे पीछे चलती रहेगी। जहां तुम्हारे कदम रुकेंगे पानी की धारा भी वहीं रुक जाएगी। इससे तुम्हारे क्षेत्र में पानी की कभी भी कमी नहीं होगी, यह कहने के बाद में ग्वालो ने चिता से एक जलती लकड़ी उठाकर दौड़ने लगे।
कुछ दूरी पर दौड़ने के बाद में ग्वालो ने सोचा कि कहीं चिता में जल रही माता जी झूठ तो नहीं बोल रही है या उनके कहे हुए कथन असत्य तो नहीं है हमें इस बात को परखना चाहिए और हमें पीछे मुड़कर रुक कर देखना चाहिए कि वास्तव में पानी की धारा बह रही है या नहीं।
अतः उन्होंने एक स्थान पर रुक कर जब पीछे की ओर मुड़कर देखा तो वे आश्चर्यचकित हो उठे उन्होंने देखा कि जिस स्थान पर उनके कदम रुके थे उन्हीं कदमों के ठीक पीछे जलधारा रुक गई थी। पानी की जलधारा चिता के स्थान से लगभग 1 किलोमीटर की दूरी पर बह कर रुक गई थी।
चिता वाले स्थान पर ही एक मंदिर का निर्माण करवाया गया। उस मंदिर के पीछे आज भी वह वृक्ष का पेड़ है। जिसके नीचे से आज भी रहस्यमई ढंग से पानी की धारा हमेशा निकलती रहती है और बहती हुई, जहां पर ग्वाले रुके थे वहां पर वह जलधारा आज भी बहती नजर आती है, उस क्षेत्र में आज भी पानी की कमी नहीं है।
रहस्यमई ढंग से पानी निकलने को लेकर वहा पर कई खोज हो चुकी है पर आज तक ये पता नहीं लगाया जा सका की ये पानी कहा से आ रहा है और कब तक आएगा। मंदिर में लोग दूर-दूर से दर्शन करने के लिए आते हैं और यहां पर भजन कीर्तन भी करते है। लोग यहा पर सवामणी भी करते है। यहां पर लोग दूर-दूर से पैदल यात्रा आते हैं, यह एक रमणीय स्थान है चारों तरफ पेड़ ही पेड़, ऊंचे पहाड़, मंदिर अपने आप में एक अद्भुत नजारा है। श्रद्धालु पहले पानी के कुंड में स्नान करते हैं और फिर माता के दर्शन करते हैं।